कर्तव्यनिष्ठा,शांति सदभाव की
वैश्विक प्रेरणा
अष्टादश श्लोकी भगवत गीता
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे,सम वेता युयुत् सवः ।
मामकाः पाण्डवाश च एव,किम् अकुर्वत सञ्जय।1।
मिले जब धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में,
मेरे व् पाण्डु के सभी पुत्रो ने ।
किया क्या बताओ ऐ संजय मुझे,
कहा चिंता में भर के धृतराष्ट्र ने ।।1।।
_____________________________________
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
_____________________________________
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
कर्मण्ये वाधिका रस्ते,मा फलेषु कदाचन।
मा कर्म फल हेतुर भूर्मा,ते संगो अस्त्व कर्मणि।।47।।
मा कर्म फल हेतुर भूर्मा,ते संगो अस्त्व कर्मणि।।47।।
हैं अधिकार तेरा कर्म करना ही,
न रख इच्छा फल की तू मन में कभी ।
कर्मो के फल का भी कारन न बन,
अच्छा नही यह छोड़े कर्म ।।47।।
_____________________________________
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।
कर्मण एव हि सन् सिद्धिम्,आस्थिता जनकादयः।
लोक संग्रहम एवापि,सम्,पश्यन् कर्तुम् अर्हसि।।20।।
जनक आदि ज्ञानी हुए जितने भी,
पा गये सिद्धि वो कर्मो से ही ।
ऐसे ही अर्जुन ! कर्म तू भी कर,
लोगो के हित पर ही रख कर नजर ।।20।।
_____________________________________
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।4.15।।
एवम् ज्ञात्वा कृतम् कर्म,पूरर्वै रपि मुमु क्षुभिः।
कुरु कर् मैव तस्मात त्वम्,पूर्वैः पूर्वतरम कृतम् ।।15।।
पुरुष जिनमे इच्छा थी कल्याण की,
कर्म कर गये जानकर ऐसा ही ।
तू भी अब अर्जुन ! सदा इसलिए,
वही कर कर्म जो उन्होंने किए ।।15।।
_____________________________________
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।
ब्रह्मण्य आधाय कर्माणि संगम् त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पदम् पत्रम् इव अम्भसा ।।10।।
कर्म सौंप दे जो प्रभु को ही सब,
आसक्ति भी छोड़ देता हैं जब ।
नही लिप्त होता कभी पापो से,
पत्ता कमल का ज्यो जल में रहे ।।10।।
_____________________________________
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।
आत्मौप म्येन सर्वत्र, समम् पश्यति यो अर्जुन ।
सुखम् वा यदि वा दुःखम्,स योगी परमो मतः।।32।।
किसी का भी सुख हो या दुःख हो कभी,
समझता जो अर्जुन! उसे अपना ही ।
सभी को ही देखे जो अपने समान,
परम श्रेष्ठ योगी उसी को तू जान।।32।।
_____________________________________
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।
मत्तः परतरम् न अन्यत् किंचिद अस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम्,सूत्रे मणिगणा इव।।7।।
मेरे सिवा इस जगत में कही,
किंचित भी वस्तु धनंजय ! नही !
पिरोई हों धागे में मणियाँ जैसे,
संसार मुझ में गुँथा है वैसे ।।7।।
_____________________________________
_____________________________________
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम्,अनुस्मर युध्य च।
मय्य् अर्पित मनो बुद्धिर् मामेव एष्यस्य संशयम् ।।7।।
जीवन संघर्षो में हर समय,
ना घबरा तूँ रह बस मेरी याद में ।
मन बुद्धि तू सौंप दे मुझको अब,
संशय नही, पायेगा मुझ को तब।।7।।
_____________________________________
_____________________________________
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।
मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुना अनेन कौन्तेय, जगद् विपरि वर्तते।।10।।
रचती हैं प्रकृति इस जगत को,
शक्ति मगर पीछे मेरी ही हो ।
मुझ ईश्वर के ही आधार से,
चक्कर में रहता हैं संसार ये ।।10।।
_____________________________________
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।10.6।।
महर्षयः सप्त,पूर्वे,चत्वारो मनवस् तथा ।
मद् भावा,मानसा,जाता,येषाम्,लोक,इमाः प्रजाः।।6।।
महर्षि सातों व् उन से पहले,
मनु और जो सनकादि चारो हुए।
सभी पैदा संकल्प से मेरे ही,
प्रजा हैं सब जिनसे पैदा हुई ।।6।।
_____________________________________
_____________________________________
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।11.12।।
दिवि,सूर्य सहत्रस्य,भवेद्,युगपद्,उत्थिता।
यदि, भाः,सदृशी,सा,स्याद्,भासस्,तस्य,महात्मनः।।12।।
निकलें जो सूरज हजार एक साथ,
जितना भी उन सबका हो प्रकाश ।
मगर उसकी तुलना में शायद ही हो,
परम-आत्मा का हैं प्रकाश जो।।12।।
_____________________________________
_____________________________________
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।
सत्रि,यम्येन,द्रिय ग्रामम्,सर्वत्र, सम बुद्धयः।
ते,प्राप्नु,वन्ति मामेव सर्व भूतहिते,रता ।।4।।
वश करके अपनी सभी इन्द्रियाँ,
सबमें ही बुद्धि बराबर बना।
लगे रहते हित में सभी जीवों के,
पा लेते अर्जुन ! हैं वे भी मुझे ।।4।।
_____________________________________
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥13.15॥
बहिर,अन्तश,च,भूतानाम,अचरम्,चरमेव च,
सूक्ष्म,त्वात्,तद्,विज्ञेयम,दूरस्थम्,चान्तिके च तत्॥15।।
प्राणी हैं जितने भी चर और अचर,
समाया सभी के हैं भीतर बाहर ।
अति सूक्ष्म, जाना जाये नहीं,
नज़दीक भी,दूर भी हैं वही ॥15॥
_____________________________________
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।14.16।।
कर्मणः सुकृतस्य,आहुः, सात्त्विकम्,निर्मलम् फलम्।
रजसस्तु, फलम्, दुःखम,अज्ञानम्,तमसः फलम्।।14.16।।
जो है सात्विक कर्मो में ही लगा,
फल उसका होता हैं निर्मल सदा ।
रजोगुण के कर्मो का फल दुःख हो,
कहा फल तमोगुण का अज्ञान को ॥16॥
_____________________________________
_____________________________________
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।15.8।।
शरीरम्,यद, वाप्नोति, यच्चाप्य, उत्क्रा मती ईश्वरः।
गृहीत्वा,एतानि,संयाति,वायुर, गन्धानि वाशयात् ।।8।।
जीवात्मा छोड़े इस देह को जब,
नये तन में प्रवेश करता हैं तब ।
शुभाशुभ कर्म साथ ले जाये वो,
वायु ज्यो ले जाती हैं गंध को ॥8॥
_____________________________________
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
दैवी सम्पद्, विमोक्षाय, निबन्धाय आसुरी मता।
मा, शुचः, सम्पदम, दैवीम अभि जातो असि पाण्डवा ।।5।।
करे जीव को मुक्त गुण दैवी ही,
बंधन में ले जाते हैं आसुरी ।
मिली हैं तुझे सम्पदा दैवी ये,
अर्जुन ! न कर शोक तू इसलिये ॥5॥
_____________________________________
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।17.26।।
सद्भावे,साधुभावे,च,सत्,इति,एतत् प्रज्यते।
प्रशस्ते,कर्मणि,तथा,सत्,शब्दः,पार्थ युज्यते।।26।।
सदा रहता और श्रेष्ठ हैं सबसे जो,
'सत्' कहते परमात्मा-ऐसे को।
उत्तम कर्म भी हैं जितने यहाँ,
'सत्' शब्द प्रयोग होता वहाँ ।।26।।
_____________________________________
_____________________________________
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।।
यत्र योगेश्वरः,कृष्णो, यत्र, पार्थो, धनुर्धरः।
तत्र,श्रीर,विजयो,भूतिर्,ध्रुवा,नीतिर,मातिर मम ।।78।।
जहाँ कृष्ण योगेश्वर का हैं वास,
अर्जुन धनुर्धारी भी रहते हैं पास ।
सन्मति सुख शांति नीति सभी,
विजय और विभूति भी होती वही ॥78॥
_____________________________________
I like this saloka
ReplyDelete